राक्षसी रोग से मुक्ति

- डा0 श्रीगोपाल काबरा
एल0एल0बी0, एम0एस0सी0 (मेडिकल), एम0एस0 (एनाटोमी), एम0एस0 (सर्जरी)



भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के नकारात्मक पक्ष को तो खूब उजागर किया जाता है, आलोचना होती है, लानत मलालत की जाती है, लेकिन सकारात्मक पक्ष और सफलताओं के प्रति उदासीनता हतोत्साहित करती है। रोग निवारण की ऐसी ही सफलता की कहानी है नारू रोग उन्मूलन। नारू, गिनी वर्म, सर्पेट वर्म, ड्रेगन वर्म, ड्रेकुंकुलस मेडिनेनसिस - कितने नामों से तो जाना जाता था। भारत, बर्मा, अफगानिस्थान, पर्सिया, अफ्रिका, वेस्टइन्डीज और साउथ अफ्रीका में इसका आतंक था। भारत में बंगाल, आसाम, बिहार और उड़ीसा को छोड़ कर सभी प्रदेश इसकी चपेट में थे। आदि काल से चले आ रहे इस रोग का अभी कुछ दशक पूर्व ही देश से उन्मूलन हुआ है, जिसका श्रेय भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं को जाता है। वैसे इस ड्रेगन, इस नागिन दैत्य से छुटकारे के लिए किसी उन्नत आधुनिक विकसित तकनीक की आवश्यकता नहीं हुई। लेकिन इस ड्रेगन राक्षसी के जीवन और अंत की कहानी बड़ी रोचक है। रहस्य, रोमांच और तिलस्म से ओत-प्रोत।



 इस राक्षसी नागिन का मानव शरीर में प्रवेश का तरीका भी विलक्षण था। गाँव के तालाब बावड़ी, जहाँ आदमी की आमाद थी, उसमें अनुसंधान कर्ताओं को बहुत छोटे छोटे एक सूंड वाले जीव, साईक्लोप मिले। इन साईक्लोप्स का विच्छेदन कर जब सूक्ष्मदर्शी यंत्र के नीचे देखा तो मिला उनके पेट में नन्हीं नन्हीं लटें थी जो उन्होंने पानी से निगली थी। बाद में यह लटें साईक्लोप के शरीर में चली गई और वहां बड़ी हुई, शरीर पर एसिड रोधक आवरण चढ गया। बिना साफ किये, छाने और शुद्ध किये जिसने भी इन तालाब बावड़ियों का पानी पीया, ये साईक्लोप उसके पेट में चले गये। पेट में एसिड से साईक्लोप मर कर धुल गये। साईक्लोप के शरीर के कीड़े बाहर आ गये। एसिड रोधक आवरण से रक्षित तैर कर आमाशय और आंत को छेद यह बाहर चले गये। वहां बड़े हुए। नर मादा में समागम हुआ। अजीब बात थी कि समागम के बाद सब नर मर गये, घुल कर लुप्त हो गये। मादा कृमि के गर्भाशय में हजारों की तादाद में बच्चे हो गये। अब शुरू हुई प्रकृति नियत दुविधा। बच्चों को बड़ा होने के लिए साईक्लोप में जाना आवश्यक। साईक्लोप रहते हैं तालाब बावड़ी के पानी में। अतः मादा नारू, पेट के बाहर की मांसपेशियों से अपना भरा गर्भाशय ले कर शरीर के उस भाग की ओर लम्बी हो चली जो पानी के संपर्क में आता हो। अधिकांश के पाँव की ओर। कंधे पर मटका रख कर जो पानी भरते थे या मशक से पानी लाने वाले भिश्तियों की पीठ की ओर। शरीर के अंदर बैठी इस मादा नारू को कैसे भान होता था कि व्यक्ति के शरीर का कौनसा भाग जल के सम्पर्क में आता है, यह प्रकृति का रहस्य है, लेकिन है सच। उस भाग में पहुँचने पर मादा नारू चमड़ी में एक छेद करती है। जब भी वह भाग पानी में भीगता है, मादा नारू उस छेद में से जरा सा बाहर निकलती है और हजारों के तादाद में बच्चे पानी में छोड़ देती है। वहाँ का पानी दूधिया हो जाता है। सूक्ष्मदर्शी यंत्र में इस पानी में हजारों लटे दिखती हैं। साईक्लोप लपक कर इन्हें निगल जाते हैं। और इस तरह फिर शुरू होता नारू नागिन का जीवन चक्र ।
 वैसे तो इस सब में व्यक्ति को विशेष तकलीफ नहीं होती थी। तकलीफ होती थी जब मादा नारू अपने लक्ष्य से भटक जाती थी। पांव की ओर जाते जाते अगर यह कूल्हे के जोड़ या घुटने के जोड में पहुँच गई तो सत्यानाश कर देती थी। खुद मरती और मरने पर जोड़ में ऐसा गंभीर रिएक्सन होता कि जोड़ ही नष्ट हो जाता। डाक्टर कुछ नहीं कर पाते। अगर फेंफड़े या स्य के पास पहुँच गई तो वहाँ भी यही होता।
 इस राक्षसी से मुक्ति का एक ही उपाय था कि उसके जीवन क्रको खत्म किया जाये। इसके लिए हर नारू रोगी को चिन्हित किया गया। फिर उसे बाध्य किया गया कि वह पीने के पानी के स्रोत (तालाब बावड़ी) के पास न जाये। लोगों को समझाया गया कि वे पानी को छान कर पीयें। जिसे नारू था उसे उससे मुक्ति दिलाने के लिए नायाब तरीका अपनाया गया। जहाँ नारू ने छेद बनाया उस पर पानी डाला जाता और ज्यों ही नारू बच्चे छोड़ने अपना मुँह बाहर निकालती उसे चिमटी से पकड़ लेते। लेकिन लम्बी नारू ऐसे तो खीचने से बाहर आ नहीं सकती थी अतः उसे पकड़ कर एक सींक से बांध देते। फिर रोज उस सींक को थोड़ा-थोड़ा घुमा कर उस पर नारू को लपेटते जाते। कुछ ही दिनों में सारी नारू बाहर।
 इस तरह मिली नारू राक्षसी से मुक्ति। आज पूरा देश इस गंभीर रोग से मुक्त है। इच्छा शक्ति हो तो संचारित रोगों की रोक थाम संभव है।
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